जनप्रवाद ब्यूरो, नई दिल्ली। धरती के विनाश को लेकर वैज्ञानिकों ने खतरनाक भविष्यवाणी की है। नई रिसर्च के अनुसार पिघलते ग्लेशियर टाइम बम बन रहे हैं। इससे सिलसिलेवार धरती के ज्वालामुखी फटने लगेंगे। इसमें अंटार्कटिका सबसे संवेदनशील है। इस क्षेत्र के नीचे 100 से ज्यादा ज्वालामुखी सक्रिय हो सकते हैं।
धीरे-धीरे बढ़ रहा धरती का तापमान
धरती का तापमान जैसे-जैसे बढ़ रहा है, वैसे-वैसे पर्यावरण में बदलाव हो रहा है। अब इस बदलाव को लेकर वैज्ञानिकों ने खतरनाक चेतावनी दी है। नए शोध के अनुसार ग्लेशियर और बर्फ की मोटी परतें पिघल रही हैं। चिंता की बात यह है कि इससे न केवल समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है बल्कि धरती के विनाश का संकट भी पैदा हो रहा है। वैज्ञानिकों के अनुसार यह एक खतरनाक चेन रिएक्शन की शुरुआत है जो पूरी धरती को हिला सकता है। हाल ही में इंटरनेशनल रिसर्च में खुलासा हुआ है कि पिघलती बर्फ ज्वालामुखियों को ज्यादा ताकतवर और ज्यादा विस्फोटक बना रही है।
अमेरिकी टीम ने किया अध्ययन
यह शोध अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ विस्कॉन्सिन-मैडिसन के पाब्लो मोरेनो-येगर और उनकी टीम ने किया है। पूरी टीम ने चिली के एंडीज पर्वतों में यह अध्ययन किया। वैज्ञानिकों ने मोचो-चोशुएंको नाम के एक ज्वालामुखी पर शोध के बाद गंभीर चेतावनी दी है। शोध के अनुसार जैसे ही बर्फ की परतें हटती हैं, जमीन के नीचे मौजूद मैग्मा चैम्बर पर दबाव कम हो जाता है। ये ज्वालामुखी ज्यादा तीव्रता से फटने लगते हैं। रिसर्च में यह पाया गया कि 26,000 से 18,000 साल पहले पूरी धरती बर्फ की चादर से ढकी थी। उस समय इन ज्वालामुखियों की गतिविधि बेहद कम थी। 13,000 साल बाद जैसे-जैसे बर्फ पिघली वैसे-वैसे इनका विस्फोटक व्यवहार बढ़ गया। शोधकताओं का कहना है कि आज सबसे बड़ा खतरा अंटार्कटिका के नीचे मौजूद 100 से ज्यादा ज्वालामुखियों से है। ये सभी मोटी बर्फ की परतों के नीचे दबे हैं। तापमान की मौजूदा रफ्तार के हिसाब से आने वाले दशकों में यह बर्फ भी खत्म होने वाली है। ये ज्वालामुखी सक्रिय हुए तो मानव जीवन खतरे में आ आएगा। साथ ही ये इतने बड़े विस्फोट करेंगे कि वायुमंडल में भारी मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन जैसी ग्रीनहाउस गैसें छा जाएंगी। इससे धरती का तापमान और तेजी से बढने लग जाएगा। वैज्ञानिकों का मानना है कि ये एक खतरनाक साइकल है।
ग्लोबल वॉर्मिंग से पिघलती है बर्फ
बता दें कि ग्लोबल वॉर्मिंग से बर्फ पिघलती है। जिससे ज्वालामुखी फटते हैं, और उनके फटने से वातावरण में गर्मी और बढ़ जाती है। यह एक विनाशकारी लूप है जिसे अभी रोका नहीं गया तो हालात काबू से बाहर हो सकते हैं। यह रिसर्च पहले आइसलैंड तक सीमित मानी जा रही थी। अब यह साफ हो चुका है कि यह खतरा पूरी दुनिया के लिए है। अमेरिका, न्यूजीलैंड, रूस और यहां तक कि भारत के हिमालयी क्षेत्र में भी ऐसी स्थिति बन सकती है। शोधकर्ताओं ने यह भी कहा कि जलवायु परिवर्तन और ज्वालामुखी गतिविधि के आपसी संबंधों पर अब तक बहुत कम रिसर्च हुई है। अब यह इस पर भी शोधकार्य हो रहे हैं। इसलिए ऐसी जानकारियां सामने आ रही हैं। इस शोध से पहले ग्लेशियरों के पिघलने से सबसे बड़ी चिंता समुद्र का बढ़ता जलस्तर था। इससे बाढ़ और मौसम का बिगड़ता संतुलन था। वहीं अब नई रिसर्च से पता चला है कि जब बर्फ की मोटी परतें किसी ज्वालामुखी को ढकती हैं, तो वह उसका दबाव नियंत्रित करती हैं। जैसे ही यह बर्फ हटती है, जमीन के नीचे दबी गैसें और मैग्मा बिना रोक-टोक के बाहर निकलने लगते हैं। इसके बाद बड़े-बड़े विस्फोट होने लगते हैं।