जनप्रवाद ब्यूरो, नई दिल्ली। आस्था, भक्ति और विश्वास के प्रचंड समागम महाकुंभ में अमृत स्नान का अद्भुत नजारा दिखाई दिया। सुबह 10 बजे तक एक करोड़ से ज्यादा लोगों ने स्नान कर लिया। वहीं अमृत स्नान में सबसे पहले नागा साधुओं ने डुबकी लगाई। ऐसे में यह जानना रोचक हो जाता है कि आखिर ये नागा साधु कौन होते हैं। इनकी दुनिया को रहस्यमी क्यों कहा जाता है। पौष पूर्णिमा पर शुरू हुए महाकुंभ 2025 में आज पहला अमृत स्नान शाही स्नान चल रहा है। मकर संक्रांति के पर्व पर कई अखाड़ों के नागा साधुओं ने संगम में पवित्र डुबकी लगा ली है। महाकुंभ के अमृत स्नान में सबसे पहले महानिवार्णी के नागा साधुओं ने आस्था की डुबकी लगाई। संगम तट पर अमृत स्नान का अद्भुत नजारा देखने को मिल रहा है। हर-हर महादेव, जय श्रीराम के जयघोष करते हुए श्रद्धालु भी आस्था की डुबकी लगा रहे हैं। स्नान क्षेत्र की ओर जाने वाले अखाड़ा मार्ग पर कड़ी सुरक्षा है। पुलिस, पीएसी, अखाड़ों के साथ घुड़सवार पुलिस और अर्धसैनिक बलों की तैनाती की गई है। देखा जाए तो सनातन धर्म में साधु-संतों का काफी महत्व है। इसके बाद भी कुंभ में आने वाले नागा साधु लोगों के लिए सबसे ज्यादा आकर्षण का केंद्र होते हैं। नागा साधुओं के बिना कुंभ की कल्पना नहीं की जा सकती है। नागा साधुओं की वेशभूषा और खान-पान आम लोगों से बिल्कुल अलग होता है। नागा साधुओं की दुनिया बेहद रहस्यमयी होती है। सबसे खास बात है कि नागा साधु कपड़े नहीं धारण करते हैं। वह कड़कड़ाती ठंड में भी नग्न अवस्था में ही रहते हैं। वह शरीर पर धुनी या भस्म लगाकर घूमते हैं। नागा का मतलब होता है नग्न। नागा संन्यासी पूरा जीवन नग्न अवस्था में ही रहते हैं। वह अपने आपको भगवान का दूत मानते हैं। नागा संन्यासी बनने की प्रक्रिया की बात करें तो यह बहुत लंबी और कठिन होती है। अखाड़ों द्वारा नागा संन्यासी बनाए जाते हैं। हर अखाडे की अपनी मान्यता और पंरपरा होती है। उसी के मुताबिक उनको दीक्षा दी जाती है। कई अखाड़ों में नागा साधुओं को भुट्टो के नाम से भी बुलाया जाता है। अखाड़े में शामिल होने के बाद इनको गुरु सेवा के साथ सभी छोटे काम करने के लिए दिए जाते हैं। नागा साधुओं का जीवन बेहद ही जटिल होता है। बताया जाता है कि किसी भी इंसान को नागा साधू बनने में 12 साल का लंबा समय लगता है। नागा साधू बनने के बाद वह गांव या शहर की भीड़भाड़ भरी जिंदगी को त्याग देते हैं। रहने के लिए पहाड़ों पर जंगलों में चले जाते हैं। उनका ठिकाना उस जगह पर होता है, जहां कोई भी न आता जाता हो। नागा साधू बनने की प्रक्रिया में 6 साल बेहद महत्वपूर्ण होते हैं। इस दौरान वह नागा साधू बनने के लिए जरूरी जानकारी हासिल करते हैं। इस अवधि में वह सिर्फ लंगोट पहनते हैं। वह कुंभ मेले में प्रण लेते हैं जिसके बाद लंगोट को भी त्याग देते हैं और पूरा जीवन कपड़ा धारण नहीं करते हैं। नागा साधु बनने की प्रक्रिया की शुरूआत में सबसे पहले ब्रह्मचर्य की शिक्षा लेनी होती है। इसमें सफलता प्राप्त करने के बाद महापुरुष दीक्षा दी जाती है। इसके बाद यज्ञोपवीत होता है। इस प्रकिया को पूरी करने के बाद वह अपना और अपने परिवार का पिंडदान करते हैं। जिसे बिजवान कहा जाता है। वह 17 पिंडदान करते हैं जिसमें 16 अपने परिजनों का और 17 वां खुद का पिंडदान होता है। अपना पिंडदान करने के बाद वह अपने आप को मृत सामान घोषित करते हैं। जिसके बाद उनके पूर्व जन्म को समाप्त माना जाता है। पिंडदान के बाद वह जनेऊ, गोत्र समेत उनके पूर्व जन्म की सारी निशानियां मिटा दी जाती हैं। इसके कारण नागा साधुओं के लिए सांसारिक जीवन का कोई महत्व नहीं होता है। नागा संन्यासी अपने समुदाय को ही अपना परिवार मानते हैं। वह कुटिया बनाकर रहते हैं। इनकी कोई विशेष जगह और घर नहीं होता है। सबसे बड़ी बात यह है कि नागा साधु सोने के लिए बिस्तर का भी इस्तेमाल नहीं करते हैं। नागा साधुओं को एक दिन में सिर्फ सात घरों से भिक्षा मांगने की इजाजत होती है। अगर उनको इन घरों में भिक्षा नहीं मिलती है, तो उनको भूखा ही रहना पड़ता है। नागा संन्यासी दिन में सिर्फ एक बार ही भोजन करते हैं। नागा साधु युद्ध कला में पारंगत होते हैं। यह अलग-अलग अखाड़ों में रहते हैं। जूना अखाड़े में सबसे ज्यादा नागा संन्यासी रहते हैं। आदिगुरु शंकराचार्य ने अखाड़े में नागा साधुओं के रहने की परंपरा की शुरूआत की थी। बताया जाता है कि नागा साधुओं के पास रहस्यमयी शक्तियां होती हैं। वह कठोर तपस्या करने के बाद इन शक्तियों को हासिल करते हैं। कहा जाता है कि वह कभी भी अपनी इन शक्तियों का गलत इस्तेमाल नहीं करते हैं। वह अपनी शक्तियों से लोगों की समस्याओं का समाधान करते हैं। नागा परंपरा के उदय की बात करें तो यह आठवीं शताब्दी से जुड़ा है। धार्मिक ग्रंथों में इस बात का जिक्र है कि सनातन धर्म की मान्यताओं और मंदिरों को खंडित किया जा रहा था। यह देखकर आदि गुरु शंकराचार्य ने चार मठों की स्थापना की। वहीं से सनातन धर्म की रक्षा का दायित्व संभाला। इसके बाद आदि गुरु शंकराचार्य को लगा कि सनातन परंपराओं की रक्षा के लिए सिर्फ शास्त्र ही काफी नहीं हैं, शस्त्र की भी जरूरत है। तब उन्होंने अखाड़ा परंपरा की शुरूआत की। इसमें धर्म की रक्षा के लिए मर-मिटने वाले संन्यासियों को प्रशिक्षण देने की शुरुआत हुई। नागा साधुओं को उन्हीं अखाड़ों का धर्म रक्षक माना जाता है। महांकुभ की खबरों के लिए बने रहिए जन प्रवाद के साथ। आपको अगली कड़ी में महिला नागा सन्यासियों के बारे में पूरी जानकारी देंगे।
रहस्यमी क्यों है नागा साधुओं की दुनिया
14-Jan-2025